reत नहीं हूँ मैं
घुल जाने दो हवाओं में
आकाश में , जल में.
रेत नहीं हूँ मैं !
गुनगुनाउंगी लहराती फसलों में
जंगलों में बांसों के खोल से उभरूंगी तान -सी
लपकती लपटों -सा लील लूंगी
सुलगते ख़यालों का धुंआ .
रेत नहीं हूँ मैं !
Yeh Kavita Hai
Kavita kya hai, isakee shaastreey vyaakhyaaon mein na jaakar 'anubhav hi pramaan'ke aadhaar par kahoongi ki kavita ek aisee upaj hai jisakee jaden gaharee hain.Kavita ke shabdon se hee arth naheen jharate,usake shabd jis ' space'se aavaranyukt hote hain vah 'space'bhee kavita kahata hai.Kavita ko samajhane ke liye uske 'space'kaa marm samajhana zarooree hai.Marmagya hee ho sakata hai kavita ka paathak.
शनिवार, 7 अगस्त 2010
शनिवार, 1 मई 2010
vegvaan mousamon ko guzarane do
guzar jaane do
aandhion- se vegvaan mousamon ko
prateeksha ik bal hai ,sankalp hai
sujhaati hai,sikhaati hai koushal
ran-kridaaon ke bahuvidh koushal
shradha se preya grahan karane ka koushal bhi
lapakati laharon ka loutana sahaj hai
baandhegi dor kaise unhen
laharon ko, mousamon ko guzar jaane do.
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
रोती हुई लड़की
रोती हुई लड़की को गौर से देखो
मासूम नहीं है यह रोती हुई लड़की
जाने किस -किस को रुलाएगी हज़ारों आंसू.
विवश-सी
क्यों गले उतारे
विषघूँट-सा वासंतरण
निर्बाध बाला -सी
धीरे -से गुनगुनाएगी
कुछ और धार देगी
चितवन को , आंसुओं को , हठ को
फिर देख कर संचित मधु को मुस्कराएगी
देगी धुआँ ,उड़ाएगी गौरवान्वित मधुमक्खिओँ को
निर्बाध बाला -सी
धीरे -से गुनगुनाएगी
कुछ और धार देगी
चितवन को , आंसुओं को , हठ को
फिर देख कर संचित मधु को मुस्कराएगी
देगी धुआँ ,उड़ाएगी गौरवान्वित मधुमक्खिओँ को
और स्निग्ध हो चुटकी बजाएगी
मासूम नहीं है यह रोती हुई लड़की !
मासूम नहीं है यह रोती हुई लड़की !
शनिवार, 28 नवंबर 2009
रविवार, 22 मार्च 2009
रविवार, 8 फ़रवरी 2009
sabhyata aur aatank
...........अब सभ्यता क्या करे अपनी स्मृति का
दृष्टि का
उस दृष्टि में सुदूर मैदानों पर बिछी
अठ्खेलियाँ करती धूप है
पौधों को सहलाती हवा
और कोई टेर लिए झूमते पेड़ पत्ते हैं
वह दृष्टि दोहराती है अपना संकल्प
पर कैसे दर्ज करे वह
गुर्राते खूंखार कुत्तों
और उनके आतंक के खिलाफ
उस प्रेम की गुहार
जो जोड़ता है सबको इतने महीन सूत्रों से
कि दिखते नहीं वे सूत्र
लेकिन टूटने पर
अशांत,असुरक्षित
चमगादड़-से विकल
अपने-अपने खँडहर में हम
असहज,असहाय-से परिक्रमाबध छटपटाते हैं.
(complete poem published in भाषा , मार्च-अप्रैल 08 अंक )
मंगलवार, 27 जनवरी 2009
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